बडी जद्दोज़हद के बाद
तुम्हारा पता मिला
ठिकाने पर आने पर तुम नहीं
दरवाज़े पर बडा सा ताला मिला
सोचा
बचपन की शरारत की आदत
अब तक तुम्हारी गई नहीं
घर पर रह कर कहलवाने की,
कह दो घर पर मैं नहीं
आस पास देखा तो महिला थीं
जो चाबी लेकर आ गईं
लो बेटा, अब सम्हालो इसको
ज़िम्मेदारी से अब मैं मुक्त हुई
समझ बूझ से परे था किस्सा
आखिर ऐसी क्या बात हुई ?
आशंका से बैठ रहा था दिल
जाने कहाँ तुम चली गई?
समस्या का समाधान हुआ
महिला वापस आ गईं
समाचार मिलते ही आए हो?
“नहीं, मगर बताएँ क्या बात हुई?”
रमा तो अब रही नहीं
हम सब को छोड़ चली गई
सामान कुछ पड़ा है घर में
जर्जर रोग से बेचारी मुक्त हो गई
मरने से पहले निगाहें उसकी
तुम्हें ही ढूँढती रह गईं
वक्त रहते तुम आये नहीं
खुद को उपेक्षित मान,चली गई
मूढ , जडवत सा मैं खडा रहा
मेरी रमा कहाँ खो गई?
चिट्ठी थी एक मेरे नाम से .
पहली थीक्षजो अंतिम बन गई
” मुझे आलीशान भवन में रखने की तमन्ना में
ज़िंदगी से तुम लड़ते रहे, मैं अकेली टूटती गई
क्षय रोग से जूझता तन, मन, आॉंखों में थे सपने
लो ,आज तुम्हारी रमा तुम्हें मुक्त कर गई
राह चलते हुए कदम लडखडाए
सोचने लगा कहाँ मेरी भूल हो गई?
प्यार का पथिक अकेला रह गया
मेरी मुमताज़ … रमा तुम कहाँ खो गई?
© चंचलिका
1 Comment
Anit Sharma · September 13, 2024 at 11:24 pm
Excellent write up maa