गगन तले , मुक्त हवा में
गुज़रती ज़िंदगी जाने कब
उन्मुक्त होकर , निर्भिक सी
उड़ने लगी, हो पंख विहीन…
विराट विश्व में एकाकी
तन्मयता से ढूँढ़ रही थी
अपने ही जैसी संगीहीना ,
मिली ज़िंदगी, शब्दहीन…
पाथेय नहीं है संग मगर
है आनंद से भरा मन आतुर
अपरिचितों संग परिचित बन
शून्य पथ न रहा दिशाहीन…
© चंचलिका
2 Comments
Dr Ved Parkash · April 21, 2022 at 10:46 am
It’s a lovely and beautiful composition.
Gurusharan Singh · April 21, 2022 at 12:28 pm
बेहतरीन प्रस्तुति