जब ग़म के बादल छाये हों
दुखियारे दिन आये हों
जब दुनिया ने मुख मोड़ लिया
सब अपनों ने नाता तोड़ लिया
खुशियों ने आँखें फेरी हों
इक बार कहो तुम मेरी हो

छोड़ दी मैंने दुनिया सारी
बस तेरे ख़ातिर ओ प्यारी
करते फ़रियाद सदसाल हुए
उम्मीद में अब बदहाल हुए
क्यूँ इन्साफ में इतनी देरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो

© Sunil Chauhan


Sunil Chauhan

मुसाफ़िर हूँ यारों, मुझे चलते जाना है

2 Comments

Madhavendra Dutt · September 3, 2021 at 11:26 am

Ibn-e-Insha जी की रचना:

हम घूम चुके बस्ती-बन में
इक आस का फाँस लिए मन में
कोई साजन हो, कोई प्यारा हो
कोई दीपक हो, कोई तारा हो
जब जीवन-रात अंधेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

जब सावन-बादल छाए हों
जब फागुन फूल खिलाए हों
जब चंदा रूप लुटाता हो
जब सूरज धूप नहाता हो
या शाम ने बस्ती घेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

हाँ दिल का दामन फैला है
क्यों गोरी का दिल मैला है
हम कब तक पीत के धोखे में
तुम कब तक दूर झरोखे में
कब दीद से दिल की सेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

क्या झगड़ा सूद-ख़सारे का
ये काज नहीं बंजारे का
सब सोना रूपा ले जाए
सब दुनिया, दुनिया ले जाए
तुम एक मुझे बहुतेरी हो
इक बार कहो तुम मेरी हो।

    Gajala Mahmood · October 31, 2021 at 8:58 pm

    इक बार कहो तुम मेरी हो ?
    क्या जाने क्यों ? का निशान लगा दी मैं, जिसके लिए कह रहे क्या जाने वो कह पाई होगी कि नही ? प्रकृति ने तो वैसे ही सबको अपने आगोश में जगह दिया है। बहुत ही लाजबाब लिखे है आप पढ़ कर अच्छा लगा।?

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