शंभू नाथ दूबे जी के यहाँ उनकी पत्नी की तीसरी बरसी के श्रद्धांजलि कार्यक्रम में पूरे पूर्वांचल के सभी नेतागण, बड़े-बड़े अधिकारी, व्यापारी के साथ-साथ गरीब मज़दूर, किसान भी पहुँचे थे।
तीन साल पहले शंभू नाथ दूबे जी की पत्नी श्रीमती राधिका देवी के तेरहवीं के आयोजन में उनके बड़े बेटे आनंद दूबे जो अमेरिका में अपनी पत्नी व दो बेटियों के साथ प्रवास करते थे, नहीं आ पाए थे। आज तीन साल बाद उनके आगमन पर शंभू जी फूले नहीं समा रहे थे। सबसे उनके बारे में बखान करते उनके मुँह नहीं दुखता था।
शंभू जी का दूसरा बेटा बैंगलूरू में अपनी पत्नी व एक बेटे के साथ रहते है। चूंकि पिछले साल राधिका देवी की दूसरी पुण्य तिथि पर वे लोग आए थे और आज कोई ज़रूरी मीटिंग आयोजित हो जाने के कारण इस बार नहीं आ पाए। शंभू जी दूसरे बेटे के न आ पाने के कारण को किसी के पूछने या ना पूछने पर बताते रहते और कहते, “मैंने ही कहा था कि इस बार तुम रहने दो, अपने कामकाज से फुर्सत नहीं है, तो मत आओ।” शंभू जी अपने दोनों बड़े बेटों के बारे में बता रहे थे कि कैसे दोनों बचपन से ही काफी कुशाग्र बुद्धि के थे और बचपन से ही संस्कारी भी थे। माता-पिता पर तो दोनों जान निछावर करने को कैसे हमेशा तैयार रहते हैं।
अचानक किसी ने शंभू जी से पूछा कि आपका तीसरा बेटा क्या करता है और कहाँ है? तीसरे का ज़िक्र सुन कर वे बिगड़ गये और बोलें, “तीसरे को घूमने-फिरने और आवारागर्दी से फुर्सत कम ही मिलती थी और वह बाकी के दोनों भाइयों की तुलना में कहीं नहीं टिकता था। वो तो मेरे कर्म थे कि किसी तरह बी०एड० करा दिया ताकि कुछ नहीं तो मास्टर ही बन जाए। वह एक छोटे से स्कूल में अपने गाँव में ही मास्टर बन गया। किसी और देश, प्रदेश या बड़े किसी दूसरे शहर में भी उसको कौन पूछता? किसी तरह उसकी दाल-रोटी चल रही है वर्ना पता नहीं इसका क्या होता और मेरी प्रतिष्ठा जाती सो अलग।’
समय बीतता जाता है और कुछ सात-आठ साल बाद शंभू नाथ जी गंभीर रूप से बीमार पड़ जाते हैं। बड़ी छोटी सारी बिमारियां उनके शरीर में आ जाती हैं। शंभू जी ने छोटे बेटे से कहा कि अपने दोनों बड़े भाइयों को बुला ले और उनका दिल्ली के किसी बड़े हास्पिटल में इलाज करवाए। शंभू जी के छोटे पुत्र ने अपने दोनों भाइयों को फोन किया और लड़खड़ाती आवाज़ में बताया कि…..उसके दोनों ही भाइयों ने कहा कि तुम दिल्ली पिताजी को लेकर पहुँचो हम देखते हैं।
शंभू जी को लेकर उनका छोटा पुत्र दिल्ली के बड़े हास्पिटल में पहुँचता है। जाँच की प्रक्रिया शुरू होती है। शंभू जी के बड़े बेटे ने अमेरिका से पिताजी का समाचार कुछ यूं लिया, ‘ कोई उम्मीद है डाक्टर साहब’। डाक्टर ने कहा, “अब कम उम्मीद है, कुछ ही महीनों के मेहमान हैं।” बड़े ने मझले को फोन किया और कहा कि कोई फायदा नहीं है, जब पिताजी गुज़र जाएँगे तब इकट्ठा चला जाएगा,बाकी सबके लिए छोटा है न।
इधर नालायक छोटा डाक्टर के पैरों पर गिर कर रोए जा रहा था। डाक्टर साहब, ‘ पिताजी को कैसे भी करके बचा लीजिएगा। जितना भी पैसा लगेगा, मैं कहीं से भी इंतजाम कर लूँगा।’ उधर पिता शंभू नाथ दूबे उम्मीद लगाए थे कि उनके अंतिम घड़ी में उनके लायक बेटे उनसे मिलने ज़रूर आएंगे।
© धनंजय शर्मा
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