मेरे दिल की किताब
कुंठा के ताले से
बरसों बंद पड़ी थी…

एहसासों के अल्फ़ाज़
उमड़ घुमड़ कर,
थोड़ी दबी ज़ुबाँ से
बहुत कुछ कहते…

मगर कुछ समझ,
कुछ नासमझी की
अलसाई सी चादर तले ,
बस उफनकर रह जाते…

एक दिन कुछ ढूँढ़ते हुए
दराज से मिली एक डायरी
जानी पहचानी सी खुश्बू लिए
बिल्कुल कोरी सी…

अनायास ही चेहरे पर
एक मुस्कान लिए
डायरी के खुले पन्नों पर ,
मैंने हाथ फेरा…

एकाकी मेरे होठ
बुदबुदा उठे…

आ, तेरी मेरी ज़िंदगी की
ख़लिश को मिटा दें ,
ज़िंदगी के कहे अनकहे
अल्फ़ाज़ों से…

अब तो, हर रात ,
देर …बहुत देर तलक
सूने पन्नों से एहसासों के
अल्फ़ाज़ों की , गुफ़्तगू होती है…

दिन, महीने या यूँ कहूँ
न जाने कितने साल
गुज़र गये डायरी के पन्नों से
बातें करते हुए…

अब तो ऐसा लगता है
डायरी ही मेरा हमराज़ है
अपनी आगोश में कितनी
अनकही बातें छुपाकर रखा है…

इसके हर पन्ने पर
हर दिन की तारीख ,
मेरा दस्तख़त गवाह है
मेरे होने का, मेरे वजूद का…

कल मैं
रहूँ या
ना रहूँ
मेरे अपनों के लिए
यह बंद डायरी,
मेरी ज़िंदगी की खुली किताब
बनकर रह जायेगी…

© चंचलिका


Chanchlika Sharma

Pure soul

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